Regionalism in India: भारत में क्षेत्रवाद के आधार पर बढ़ती क्षेत्रीयता की समस्या अलग-अलग रूपों में हमेशा ही महत्वपूर्ण रही है। हमें भारत में क्षेत्रवाद के विभिन्न आयामों को समझने की आवश्यकता है, जैसे कि राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से। राजनीतिक धुरंधर क्षेत्रवाद का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए करते हैं, जो किसी न किसी प्रकार से अस्थिरता और विभाजन का कारण बनता है। इसके अलावा, कुछ अलगाववादी तत्व इसे अलग-अलग राज्यों की मांग के साथ क्षेत्र में अस्थिरता फैलाने के लिए उपयोग करते हैं। जो सामाजिक और आर्थिक विकास को रोकते हैं।
केंद्र सरकार की बचाव में या राज्य सरकार की गठन में, क्षेत्रवाद का मसला हमेशा ही महत्वपूर्ण रहता है। चुनावों में केंद्र से लेकर स्थानीय स्तर तक, इस मुद्दे पर बहस हमेशा जारी रहती है। राष्ट्रवाद बनाम क्षेत्रवाद के मामले में भी यह विवाद चलता रहता है। कुछ लोग इसे नकारात्मक रूप में देखते हैं, जबकि कुछ सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। भारत में क्षेत्रवाद का मुद्दा हमेशा उभरता रहता है, इसलिए इसे समझना और उसके हर पहलू को ध्यान से विचार करना महत्वपूर्ण बन जाता है।
क्षेत्रवाद क्या है?
सबसे पहले हमें यह समझना है कि क्षेत्रवाद में क्षेत्रीयता का क्या मतलब है। क्षेत्रीयता का मतलब है जहां हम जन्म लेते हैं और जहां हमारा जीवन बीतता है, और हम उस जगह के लिए विशेष लगाव रखते हैं। जब हम अपने क्षेत्र की समृद्धि के लिए प्रयास करते हैं, तो यह सही है, लेकिन जब हम सिर्फ़ अपने ही क्षेत्रीय हितों में उलझ जाते हैं, तो यह कुछ नकारात्मक परिणाम भी ला सकता है। क्षेत्रवाद का अर्थ है कि हम किसी खास क्षेत्र के हितों को सबसे ऊपर मानना और उन्हें बचाने के लिए प्रयास करना। इसका मतलब है कि हम अपने क्षेत्र की महिमा और उत्कृष्टता को महत्वपूर्ण समझते हैं। भारत में, क्षेत्रवाद के मुद्दे अलग-अलग राज्यों की मांग के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनके पक्ष में लाने की मांग, और बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन के रूप में अभिव्यक्त होते हैं।
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क्षेत्रवाद के कारण क्या हे?
हमारे देश में लोग इतनी ज्यादा क्षेत्रवादी हो गए हैं कि वे अपनी भारतीयता को राज्यों के आधार पर जानते हैं। यहां, लोग राष्ट्रीयता के बजाय क्षेत्रीयता को अधिक महत्व देते हैं। भारत में, क्षेत्रवाद के लिए अलग-अलग भाषा, भौगोलिक पहचान, और स्थानीय सम्मान को महत्व दिया जाता है। इसके लिए लोग विकास के कई कारकों को उत्तरदाई मानते हैं। भारत में, क्षेत्रवाद की भावना पुराने समय से चली आ रही है। भौगोलिक कारण भी इसमें महत्वपूर्ण हैं। भारत दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है, जिसका प्रभाव क्षेत्रफल और भौगोलिक विविधता में दिखाई पड़ता है। यहां पर विभिन्न भौगोलिक विशेषताएँ हैं, जैसे कि हिमालय पर्वत श्रृंखला, मैदान, प्रायद्वीपीय पठार, और द्वीप समूह।
इस विभाजन से उन क्षेत्रों के लोगों के जीवन पर बड़ा असर पड़ा, जहां सोसायटी, धर्म, भाषा, परिधान, खान-पान, रहन-सहन, सांस्कृतिक ट्रेडिशन्स आदि अलग-अलग थे। कुछ राज्य विकसित हो गए, लेकिन कुछ पिछड़ गए। भौगोलिक विविधता के कारण, कुछ राज्यों के विकास में मदद मिली, जबकि कुछ आगे नहीं बढ़ पाए। राजनीति में भी, क्षेत्रवाद ने बड़ा योगदान दिया। कई बार राजनीतिक नेता ने क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया, जिन्होंने अलग अलग राज्य बनाने और क्षेत्रीय समस्याओं को मुद्दा बनाया। कुछ नेता ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय पार्टियों में राजनीतिक आकांक्षाओं के लिए क्षेत्रीय राजनीति की शुरुआत की।
तमिलनाडु में DMK और AIADMK, आंध्र प्रदेश में Telugu Desam, महाराष्ट्र में Shiv Sena, पंजाब में Akali Dal, और जम्मू और कश्मीर में National Conference Party जैसे कई उदाहरण हैं, जो देश के विभिन्न राज्यों के बीच पानी और जमीन के बंटवारे के मुद्दे पर विवाद को लेकर सक्रिय हैं। उदाहरण के रूप में, पंजाब और हरियाणा के बीच चंडीगढ़ और सतलुज-यमुना लिंक नहर का विवाद, तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल विवाद, और महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच अलगाव के मसले उल्लिखित हैं। राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को राजनीतिक रंग देकर लोगों को भाषाई आधार पर चिन्हित किया या किसी क्षेत्र का गठन करने के लिए इस्तेमाल किया है। भारत में इस प्रकार के भाषाई विवाद नया नहीं है, बल्कि आजादी से पहले भी यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा रहा है। उदाहरण के रूप में, 1947 में कांग्रेस पार्टी ने भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग की थी।
भाषा के आधार पर हुआ राज्यों का बटवारा
1927 में नेहरू रिपोर्ट में फिर से यही मांग उठी और आजादी के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन पर बहस छिड़ी। इस विवाद को समाप्त करने के लिए 1948 में इधर आयोग की स्थापना की गई। उसके बाद, जेवीपी समिति ने भी भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया। इसी सिलसिले में, 1953 में भाषाई आधार पर पहला राज्य आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। आगे बढ़ते हुए, 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने भाषाई आधार पर राज्यों की मांग को पूरा किया। इसके बाद, अन्य क्षेत्रों में भी भाषाई आधार पर अलग-अलग राज्यों की मांग उठी और आंदोलन आरंभ हुए। इस कारण, 1968 में मुंबई स्टेट को महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजित किया गया, और 1966 में पंजाब को भी हरियाणा और पंजाब में विभाजित किया गया। 1972 में असम में बंगाली और असमी भाषा पर विवाद हुआ।
वास्तव में, हमारे देश में अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग अपनी-अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए और अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा करने के लिए दूसरे भाषा बोलने वाले लोगों के निवास के खिलाफ होते हैं। महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले की एक वजह भी भाषा है। इस प्रकार के भाषाई मुद्दों के अतिरिक्त, सामान्य और संतुलित आर्थिक विकास क्षेत्रीय असमानताओं को बढ़ावा देता है जो क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है। हमारे देश में कई राज्यों में आर्थिक असंतुलन देखने को मिलता है, जिससे क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न होती है। यह विवाद राज्यों के बीच महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों से पूर्वोत्तर राज्यों में देखा जा सकता है। इसके कारण, क्षेत्रीय विकास में संतुलन और प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण विभिन्न राज्यों में मतभेद होते रहते हैं, जिससे क्षेत्र को बढ़ावा मिलता है।
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भारत में क्षेत्रवाद बनता हे विवाद कारण
भारत में क्षेत्र की वजह से कई चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। कई बार क्षेत्रवाद और अलगाववाद की भावना से बड़े विवाद होते हैं, जैसे असम में उल्फा गुट, मिजो नेशनल फ्रंट, और लुधियाना में खालिस्तान आंदोलन। नए राज्यों के गठन से भी देश की एकता और अखंडता पर प्रभाव पड़ता है। केंद्र-राज्य संबंधों में भी कटुता देखी जाती है, जैसे झारखंड की स्थापना से हुआ विवाद। इससे यह सुझाता है कि क्षेत्र से संघर्षात्मक घर की प्रवृत्ति बढ़ती है। क्षेत्र से गठबंधन की राजनीति भी होती है, जो राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ाती है।
क्षेत्रवाद की राजनीति से क्षेत्रों के विकास में कई बाधाएं आती हैं। इससे कुछ राजनेता और उद्योगपति केवल अपने क्षेत्र के लिए प्रयास करते हैं, जिससे वे वोट बैंक के रूप में उसे इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करने से सामाजिक विवाद और धार्मिक विवाद होता है। कई बार राष्ट्र हित के मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि क्षेत्र के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद, वहाँ सकारात्मक धारणाएं भी हैं। इसलिए, लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाएं समझी जानी चाहिए और उन्हें नुमाइंदगी दी जानी चाहिए। इससे लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाएं और मजबूत होती हैं।
लोकतांत्रिक राजनीति में, क्षेत्र के मुद्दों को समझने और सोचने का तरीका बहुत महत्वपूर्ण है। यहां पर कुछ स्थानीय नेता अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करते हैं। लेकिन कई बार यह क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद के बीच एक विवाद होता है। राष्ट्रीय स्तर पर कुछ राजनेता क्षेत्रीय चिन्ह को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन यह न केवल एक तरह के गलतफहमी का कारण है, बल्कि यह भी देश के विभिन्न भागों में विवाद उत्पन्न कर सकता है। इसलिए, क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद के बीच संतुलन होना चाहिए। यह सही विकास के लिए आवश्यक है।
भारत की संस्कृति ने भी क्षेत्रवाद को दिया बढ़ावा
भारत के सभी राज्यों में अलग-अलग संस्कृतियाँ हैं। वास्तव में, एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग संस्कृतियाँ दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में मारवाड़, शेखावटी, ढूंढूं, मेवाड़, और उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाऊंनी, यूपी में पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड, गुजरात में सौराष्ट्र, कच्छ, आदि। इन सभी क्षेत्रों में विशेष संस्कृतियाँ हैं। इसलिए, हमारे देश में संस्कृति ने क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है। लोग अपनी विशेष संस्कृति और परंपराएँ संजोकर रखते हैं, जैसे आभूषण, लिपि, खान-पान, लोक कला, और लोक साहित्य। इससे संस्कृति का संरक्षण होता है। नतीजतन, हम कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद समर्थक है, परंतु अगर यह राष्ट्र की एकता और अखंडता को प्रभावित करता है, तो इसे समीक्षा करना आवश्यक है।
इस मामले में, यह जानना जरूरी है कि भारत को कैसे आगे बढ़ना चाहिए। नीति आयोग को सभी क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस काम करने की आवश्यकता है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को समझा जाए और राज्यों को साझा किया जाए। किसी भी राज्य को विकास प्रक्रिया में अलग और पिछड़ा महसूस नहीं करना चाहिए। केंद्र सरकार को प्राकृतिक और खनिज संसाधनों को राज्यों की आवश्यकताओं के अनुसार बेहतर ढंग से वितरित करना चाहिए। साथ ही, केंद्र सरकार की सभी योजनाओं का पिछड़े क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े होते हैं। राज्यों के बीच विवादों को हल करने और समन्वय बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, संविधान के अनुच्छेद 263 में, राज्यों के बीच चल रहे विवादों के समाधान के लिए एक प्रशिक्षण संस्थान के रूप में अंतरराष्ट्रीय परिषद की स्थापना का प्रावधान किया गया है। राज्य सरकारों को इस परिषद के सुझावों पर ध्यान देना चाहिए।
संविधान में उल्लिखित क्षेत्रीय परिषद का गठन देश के सम्पूर्ण विकास के साथ-साथ एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इस परिषद के माध्यम से समय-समय पर अपने सुझाव देकर विभिन्न क्षेत्रों के बीच विवादों को हल किया जा सकता है। लेकिन कई बार देखा गया है कि यह परिषद सक्रिय रूप से काम नहीं करती है और उसके सुझावों को नजरअंदाज किया जाता है। इसलिए, महत्वपूर्ण है कि परिषद द्वारा दिए गए सुझावों पर गंभीरता से विचार किया जाए और उन्हें तत्काल अमल में लाया जाए। साथ ही, शिक्षा के माध्यम से एक राष्ट्रव्यापी दृष्टिकोण का विकास किया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों में क्षेत्र के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता फैलाई जा सकती है।